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फूलन बनाम बैंडिट क्वीन

सबसे अफसोसनाक यह है कि शारीरिक, मानसिक और यौनिक हिंसा की शिकार बनती औरतों की कहानियां आज भी सिर्फ फ़िल्मों और सियासत के लिए ईंधन ही बन रही हैं; इंसाफ़ के लिए उठती आवाज़ आज भी कोलाहल में गुम ही होती है।

बुल्डोजर न्याय 'हाय-हाय' तो ट्रैक्टर भीड़तंत्र 'अमर-रहे' क्यों?

बुल्डोजर के राजनीतीकरण और विध्वंसक इस्तेमाल से इसकी छवि 'फौजी टैंक' वाली बनाई जा रही है, जो सिर्फ़ तोड़फोड़ और दहशत का सबब हो।

यह कैसी पर्दादारी है?

हम एक संक्रमण काल से गुज़र रहे हैं जब दुनिया के एक कोने में हिजाब का विरोध हो रहा है और दूसरे कोने में हिजाब के पक्ष में अदालती जिरह चल रही है; जबकि देखा जाए तो शर्म लाज लिहाज के नाम पर औरत को कपड़े की परिधि से ढांपने को चाहे धर्म के नाम पर हिजाब कहो या संस्कृति के नाम पर घूंघट या पर्दा, बात एक ही है।

राजस्थान: सुनहरी रेत पर सजा सतरंगी ताना-बाना

राजस्थान के समाजिक परिवर्तन के लिए किसी भी नैरेटिव के सहारे इस समाज को तोड़ने की नहीं, बल्कि इन बिखरे हुए धागों को एक सूत्र में जोड़ने की ज़रूरत है।

राजा और फ़कीर की यारी और विश्व बंधुत्व की नींव

राजपुताना में खेतड़ी ठिकाणा के शेखावत वंश के शासक महाराजा अजीत सिंह बहादुर और (पहले) स्वामी विवेकानंद के बीच रही अनोखी दोस्ती की कहानी आज जानने योग्य है

Dr. Hari Singh Gour: The forgotten champion of Legal Rights Movement

𝗗𝗿. 𝗛𝗮𝗿𝗶 𝗦𝗶𝗻𝗴𝗵 𝗚𝗼𝘂𝗿, an orator, a litterateur, a lawyer, a brilliant conversationalist; an eminent jurist, a patriot or a courageous social reformer, remains the 𝙛𝙤𝙧𝙜𝙤𝙩𝙩𝙚𝙣 𝙗𝙚𝙖𝙘𝙤𝙣 𝙤𝙛 𝙥𝙧𝙤𝙜𝙧𝙚𝙨𝙨𝙞𝙫𝙚 𝙡𝙚𝙜𝙖𝙡 𝙥𝙧𝙤𝙫𝙞𝙨𝙞𝙤𝙣𝙨 𝙢𝙖𝙙𝙚 𝙛𝙤𝙧 𝙩𝙝𝙚 𝙗𝙚𝙩𝙩𝙚𝙧𝙢𝙚𝙣𝙩 𝙤𝙛 𝙄𝙣𝙙𝙞𝙖𝙣𝙨, 𝙨𝙥𝙚𝙘𝙞𝙖𝙡𝙡𝙮 𝙛𝙤𝙧 𝙬𝙤𝙢𝙚𝙣’𝙨 𝙧𝙞𝙜𝙝𝙩𝙨.

Nehruvian Legacy : Between Façades and Faultlines

To see one’s national heroes falter is rather demoralising but to explore that policy failures have been systemically withheld to upkeep popular image of a leader like Nehru is even more damaging for an informed citizenry. A coterie of historians and courtesan poets can choose to sing paeans but as citizens, we must break the glass facades of perceptions & reclaim our heroes like Nehru with both their fault-lines & strengths, alike.

उदासी पंथ : समन्वयता और संघर्ष का इतिहास

आज पंथिक इतिहास को मुड़कर देखें तो सामने आता है कि बेशक, प्रथम गुरु बाबा नानक ने सिख पंथ की गुरगद्दी अपने पुत्र श्रीचंद की जगह गुरु अंगद देवजी को सौंपी मगर गुरु नानक देवजी के बड़े पुत्र बाबा श्रीचन्द के चलाए 'उदासी संप्रदाय' की जड़ें आज भी सिख पंथ के साथ ही गुंथी हुई मिलती हैं।

अल्लामा इक़बाल: परिंदों की दुनिया का दरवेश

अक्सर अल्लामा का नाम लेते ही ज्यादातर लोग इनका सुझाया हुआ 'द्विराष्ट्र सिद्धांत' याद करते हुए इन्हें '47 विभाजन का इल्ज़ाम देकर इनका आगे-पीछे का सारा बेहतरीन रचना-कर्म ख़ारिज कर देते हैं। सवाल यह है कि क्या गलतफहमी, बेबस हालात, मुश्किल चुनाव या ढलती उम्र के किसी पड़ाव में लिए गए एक stand की बुनियाद पर किसी के आजीवन संघर्ष से अर्जित body of work को इतनी आसानी से ख़ारिज किया जाना जायज़ है?

हथियारबंद बचपन: बुनियाद में बोया बारूद

"..जो कल तक अपनी तख्ती पर हमेशा अम्न लिखता था,  वह बच्चा रेत पर अब जंग का नक्शा बनाता है.." अज़ीम शायर मुनव्वर राना के यह अल्फाज़ युद्ध के ताप से बेमौसम पके हुए उन तमाम बच्चों की याद दिलाते हैं, जिनके बचपन की इबारत पर किसी ने बारूद रगड़ दिया। कश्मीर से कुर्दिस्तान और काबुल से दंतेवाड़ा तक कितने ही अनाम बच्चे अघोषित युद्धों में जूझते हुए मारे गए और शहीदों- हलाकों की गिनती में शुमार होने लायक कद भी न ला सके।

जेसीबी: एक मशीन का राजनैतीकरण

पिछले कुछ दिनों से बुल्डोजर या JCB मशीन के राजनीतीकरण के चलते बुल्डोजर को रूपक की तरह इस्तेमाल कर इसकी छवि 'फौजी टैंक' वाली बना दी गयी है। किसी मशीन को खलनायक बनाने से बेहतर है, उसे गलत हाथों से खींचा जाए।

फूलन देवी : बंदूक से बुद्ध तक

फूलन को अगर आप बैंडिट क्वीन जैसे manipulative cinema से जानते हैं या दस्यु सुंदरियों को लेकर छपी पल्प-फिक्शन-नुमा रिपोर्टों से, तो दोबारा सोचिए! फूलन देवी का 'पॉलिटिकल कैपिटल' की तरह आज तक दोहन करने वालों ने उसे देवी, नायिका और दस्यु सुंदरी बताकर उसके किरदार और कहानी की जैसी लीपापोती की है, वह न सिर्फ़ फूलन की छवि के लिए बल्कि एक न्यायाभिलाषी समाज के लिए भी घातक है।

रेत समाधि को बुकर पुरस्कार : लेखकों के लिए हिंदी राष्ट्रीयता के कुएं से निकलने का अलार्म

गीतांजलि श्री के उपन्यास 'रेत समाधि' के अंग्रेज़ी तर्जुमे 'Tomb of Sand' को बुकर पुरस्कार मिलने पर हिंदी भाषा और अंग्रेज़ी भाषा,...

अल्लाह बिस्मिल्लाह मेरी जुगनी

आखिर कौन थी जुगनी? या कौन 'है' ? हर औरत जैसी लगने वाली मगर एक रहस्यमई पहचान लिए आज़ाद जगह-जगह फिरने वाली ? ना हिन्दू, ना सिख, ना मुसलमान, ना सूफी। नाम अल्लाह का भी लेती है, साईं का भी, पीर, गुरु और हरि का भी ! कभी जालंधर, कभी कलकत्ता, कभी कश्मीर घूमघूम कर रूहानी फलसफे बटोरती हुई जुगनी! दाता दरबार में भी मिल जाएगी, मदीने भी और टेनिस कोर्ट में भी! सरहद के इस पार भी और उस पार भी! आखिर कौन हुई जुगनी?

आमिर ख़ुसरो : सूफ़ी सुख़नवर

पहली दफ़ा ही होगा कि 'तूती-ए-हिन्द', आमिर ख़ुसरो के उर्स-मुबारक पर निज़ामुद्दीन का बरामदा क़व्वालियों से गूँज नहीं रहा होगा। कोरोना लॉकडाउन के चलते जून माह में भी 'महबूब-ए-इलाही' निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह ज़ायरीन के लिए बंद ही रहेगी और आज आमिर खुसरो को याद करते हुए हम सिर्फ़ उनकी ज़िन्दगी और शायरी का ज़िक्र ही कर सकते हैं।
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